‘ताकि जब थालियों से रोटियाँ ग़ायब हों, तो पता रहे कि ये कैसे हुआ’

भारत में किसानों के मरने से किसी को फर्क़ नहीं पड़ता'. यह वाक्य पढ़ते वक़्त शायद आप रोटी, चावल, मक्का, दाल, ब्रेड या बिस्कुट का कोई टुकड़ा खा रहे होंगे.
देश के किसी हिस्से में किसी किसान की मेहनत से उगाए गए अनाज से बने पकवान खाते हुए आप शायद टीवी पर मुंबई से प्रसारित कोई फ़ैशन शो भी देख रहे होंगे. या शायद अपने फ़ोन पर किसी ऐप से उस फ़ैशन शो में दिखाए गए कपड़ों को किसी ऑन-लाइन सेल से ख़रीदने का मन भी बना रहे होंगे.
इस बात की संभावना बहुत कम है कि डिज़ाइनर कपड़ों की ऑनलाइन शॉपिंग करते वक़्त आप इन कपड़ों के लिए कच्चा माल यानी कपास उगाने वाले विदर्भ के उस किसान के बारे में सोचें जो इन दिनों बार-बार ख़ुदकुशी करने की सोचता है.
उस किसान का कोई नाम नहीं है, कोई चेहरा नहीं है और न ही कोई पता है. वो खेती के धंधे में लगे उन लोगों में शामिल है जो पिछले कई सालों से हताशा में डूबने-उतराने के बाद आत्महत्या कर लेते हैं. भारत में औसतन हर घंटे एक किसान आत्महत्या करता है.
किसानों को खेती में इतना नुक़सान उठाना पड़ता है कि वह कर्ज़ लेकर भी अपनी खेती को पटरी पर नहीं ला पा रहे हैं. और फिर निराशा में कभी फ़सल को कीड़ों से बचाने के लिए लाए गए पेस्टीसाइड को पीकर, कभी रेल की पटरियों पर लेटकर, कभी मवेशियों को बांधने वाली रस्सी अपनी गर्दन के चारों ओर लपेटकर, कभी कुएँ या नहर में छलाँग लगा कर तो कभी अपनी माँ या पत्नी के दुपट्टे से मौत का फंदा बनाकर अपने ही खेत के किसी पेड़ पर ख़ुद झूल रहे हैं.
लेकिन फिर भी, बीते दो दशकों से किसानों की लगातार ख़राब होती स्थिति और अनवरत जारी आत्महत्याओं के इस सिलसिले को देखते हुए यह साफ़ हो जाता है कि शायद वाक़ई किसानों के मरने से किसी को फर्क़ नहीं पड़ता. फिर भारत में हर पल गहराते कृषि संकट पर अलग से बात करना क्यों ज़रूरी है? इस सवाल और इससे जुड़े आँकड़ों पर आने से पहले एक छोटी सी कहानी-
जब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ती थी तब मैंने पहली बार अपने स्कूल की प्रार्थना सभा में 'भारत के किसान' विषय पर एक छोटा-सा भाषण दिया था. मुझे याद है उस भाषण की शुरुआत 'भारत एक कृषि प्रधान देश है' और 'किसान भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं' जैसे वाक्यों से हुई थी.
अपने पिता द्वारा लिखे गए इस भाषण की पर्ची हाथ में लिए डरते-डरते स्टेज पर जाते वक़्त मुझे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि भारतीय अर्थव्यवस्था की जिस 'रीढ़' के बारे में मेरे पिता मुझे समझाते थे, वह रीढ़ मेरे वयस्क होने तक टूटने की कगार पर आ जाएगी.
फिर ऐसा कैसे हुआ कि 'किसान' -- जिसे इस देश के लोक व्यवहार में 'अन्नदाता' कहकर सम्मानित करने की परंपरा रही है -- पिछले 20 सालों से देश भर में हुई वो अपनी आत्महत्याओं की तालिका बनकर रह गया है और अख़बारों से लेकर संसद की मेज़ों तक पर पड़ा रहा है.
ऐसा कैसे हुआ कि मुख्यधारा की मीडिया में 'किसान की आत्महत्या' एक घिसापिटा विषय बन गया और 'किसान पुत्र' नेताओं से भरी संसद से होने वाली 'लोन माफ़ी' की घोषणाएँ किसानों के खातों तक नहीं पहुंच पाईं?स बीच हमारे किसान सरकार के साथ-साथ हम सब तक अपने मुद्दे पहुंचाने के लिए भरसक प्रयास करते रहे. नासिक से मुंबई तक हज़ारों की तादाद में पैदल चलकर आए, अपने मरे हुए साथियों के अवशेष लेकर दिल्ली आए, दिल्ली की गर्मियों में सड़क पर फैलाकर सांबर-चावल खाया, संसद के सामने लगभग निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया, फिर भी उनकी ज़िंदगी में कुछ नहीं बदला.
आज़ादी से पहले प्रेमचंद की कहानियों में दर्ज किसान की स्थिति आज़ादी के 70 सालों बाद भी जस की तस बनी रही.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.बी) के आंकड़ों के मुताबिक़ 1995 से अब तक भारत में तीन लाख से भी ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. इसी सिलसिले में ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि सन 2016 में देश में 11,370 किसानों ने ख़ुद अपनी जान ली.
खेती के बढ़ते ख़र्चे पूरे करने के लिए लिया गया कर्ज़ न चुका पाना आत्महत्या की सबसे बड़ी वजह है.
इस वजह से परिवार के दूसरे लोगों में फैली पस्त हिम्मती, मौसम की मार और उपज का सही दाम न मिलना भी कृषि संकट के महत्वपूर्ण कारण हैं. लेकिन सबसे बड़ा कारण है किसान का नाउम्मीद हो जाना.

Comments

Popular posts from this blog

चर्चा में रहे लोगों से बातचीत पर आधारित साप्ताहिक कार्यक्रम

纽约气候峰会:推动长期气候中和的良机

آيا صوفيا: صورة راقصة باليه في المتحف تثير غضب المحافظين في تركيا