चर्चा में रहे लोगों से बातचीत पर आधारित साप्ताहिक कार्यक्रम

पूरी दुनिया में तेल खपत के मामले में भारत और चीन की हिस्सेदारी लगभग 17 प्रतिशत है, लिहाजा ऊर्जा की आपूर्ति के लिए तालमेल से उन्हें क़ीमतों पर अधिक लाभ मिलेगा.
इसमें यदि जापान और दक्षिण कोरिया को भी मिला ले तो ये चार देश दुनिया भर में ख़रीदे जा रहे तेल का एक तिहाई हिस्सा आयात करते हैं.
यानी यदि ये चारों देश मिल जाएं तो तेल की कीमतें तय करने को लेकर इनकी मांग और मज़बूत हो जाती है.
पहली मई को इकॉनमिक टाइम्स अख़बार ने अपने संपादकीय में लिखा, "भारत और चीन के कारण वैश्विक तेल बाज़ार का ताक़तवर ढांचा एक बहुत बड़े और संभावित दूरगामी बदलाव के कगार पर हो सकता है."
इसमें लिखा गया है कि 'ख़रीदारों का समूह' सौदेबाजी की ताक़त को नाटकीय रूप से आयातकों के पक्ष में झुका सकता है और इससे पूरी दुनिया में तेल की क़ीमतें भारत और चीन के समीकरणों के अनुसार चलेगी."
इतना ही नहीं, इस बार की पहल के सफल होने के बेहतर मौक़े हैं क्योंकि अमरीका में जिस तरह शेल एनर्जी में जबर्दस्त तरक्की हुई उसने ओपेके के प्रभाव को कम किया है.
हिंदू बिज़नेस लाइन ने जून 2018 के अपने लेख में लिखा कि शेल एनर्जी में हुई इस तरक्की की वजह से पूरी दुनिया में मांग-आपूर्ति के समीकरणों में बड़ा बदलाव आया और क़ीमतों पर इसका असर पड़ा. 2014 से 2017 के बीच तेल की क़ीमतों में कमी आई और इसकी वजह से तेल का शक्ति संतुलन भी बदल गया.
सिंगापुर स्थित ऊर्जा विश्लेषक वंदना हरि को लगता है कि "वर्तमान ईरान संकट नए क्लब के लिए अपनी पहचान बनाने का एक शानदार अवसर है."
17 मई को जापान के निक्केई एशियन रिव्यू में छपे एक लेख में वो लिखती हैं, "तेल को लेकर ओपेक एकमात्र समुदाय नहीं है जिससे उन्हें निपटने की ज़रूरत है. इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण होगा अमरीका के साथ बातचीत करना."
चाइना यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेट्रोलियम में असोसिएट प्रोफ़ेसर जिन लेई ने 28 अप्रैल को ग्लोबल टाइम्स को बताया कि ओपेक का संकट के दौर में गठन हुआ था. वर्तमान स्थिति से ऐसा ही कुछ नया पैदा हो सकता है."
काग़ज़ पर यह प्रस्ताव बहुत अच्छा दिखता है, लेकिन इसे अमलीजामा पहनाना एक अन्य मामला है.
ऊर्जा विश्लेषक साउल कावोनिक ने द सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड से जून 2018 में कहा, "एशिया में अंतरराष्ट्रीय तेल ख़रीदार संगठन बनाने का विचार सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है लेकिन व्यावहारिक रूप से इसे बना पाना और चला पाना बहुत चुनौतीपूर्ण होगा."
वो कहते हैं, "अल्पकालिक मांग में लचीलेपन को देखते हुए यह ज़रूरी नहीं है कि तेल की ख़रीदार एक ही क़ीमत पर तेल की ख़रीद करने में सक्षम होंगे क्योंकि इसकी आपूर्ति तो ओपेक को ही करनी है, जो उसकी भूमिका को चुनौती देने वाले ख़रीदारों के लिए एक तय सीमा का सुझाव दे सकता है."
इस क्लब के प्रभावी होने के लिए, दोनों देशों और उनकी ऊर्जा कंपनियों को एक अच्छी तेल मशीन की तरह काम करना होगा. इसके बावजूद, यह सवाल भी है कि वे तेल की मांग को कैसे नियंत्रित करेंगे जो प्रत्येक देश की बाज़ार आवश्यकताओं से निर्धारित होती हैं?
साथ ही, वैश्विक राजनीतिक कारक भी इसकी एक संभावित बाधा है, क्योंकि समान आर्थिक हित होने के बावजूद भी शायद ही कभी कोई दो एशियाई प्रतिद्वंद्वी देश आपस में टीम की तरह काम करते हैं.
ज़ियामेन यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर लिन बोकियांग ने ग्लोबल टाइम्स से जून 2018 में कहा, "इसमें भी कोई शक नहीं है कि, भले ही यह ऊर्जा के क्षेत्र में गठजोड़ की बात हो, यह चीन और भारत के बीच राजनीतिक संबंध की जटिलता से जुड़ा हुआ होगा."
2017 की गर्मियों में डोकलाम गतिरोध के बाद दोनों प्रतिद्वंद्वियों (चीन और भारत) के बीच संबंध धीरे-धीरे स्थिर हो गये हैं, लेकिन इसमें अंतर्निहित अविश्वास अब भी बरकरार है.
8 मई को नई दिल्ली स्थित हिंदुस्तान टाइम्स ने अपने संपादकीय में सवाल किया कि क्या भारत ने कभी चीन पर भरोसा किया है, और यह जाहिर किया कि 'ऑयल बायर्स क्लब' का विचार अब तक अपने 'गठन से पहले ही बेजान' है.
(बीबीसी मॉनिटरिंग दुनिया भर के टीवी, रेडियो, वेब और प्रिंट माध्यमों में प्रकाशित होने वाली ख़बरों पर रिपोर्टिंग और विश्लेषण करता है. आप बीबीसी मॉनिटरिंग की ख़बरें ट्विटर और फेसबुक पर भी पढ़ सकते हैं.)

Comments

Popular posts from this blog

纽约气候峰会:推动长期气候中和的良机

آيا صوفيا: صورة راقصة باليه في المتحف تثير غضب المحافظين في تركيا